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सच कहूँ तो न मुझे भाषा आती है
न मुझे राजनीति का शौक़ है
ये कवितायेँ तो बस गर्म रांगे की नोंक हैं..
जो कहीं भी चिपकी नज़र आ जाती है..
मेरे दिमाग के भीतर एक दिल
और दिल के भीतर एक दिमाग है..
जो शिकायतों का बाग़ है
उन्हें नहीं मालूम सुलभ केंद्र क्या होता है
सड़क ख़त्म होने का इंतज़ार उतना ही असुरक्षित है
जितना किसी मुफलिस लड़की का यौवन
वे तो बस कान मैं जनेऊ लपेटे
आसमान को मैंटे
मुसलसल पेशाब कर रहे हैं
खेत तर रहे हैं
ज़रूरतों की चौखट पर इल्तिजा हो रही है
उन भाइयों के लिए
जिनकी ज़ोरदार थकान काल्पनिक प्रेयसी के साथ बिस्तर मैं जागती है..
सड़क किनारे आदमजात समुच्चय बैठा है
थाली मैं सिक्कों की दरकार है.
नहीं तो भूखे पेट के लिए दिलासों का व्याकरण तैयार है….
आधा हिन्दोस्तान गा रहा है
आधा नाच रहा है
बाक़ी वादे बांच रहा है..
लेकिन शायद अब नक्शे बदलेंगे..
कल रात
पंचायत मैं आये घुश्पैठियों ने ने उस आवाज को सुन लिया है
जिसे चुप कहते हैं..
फिर भी जाने क्यूँ मेरे दोस्त कहते हैं
यार तू बड़ा बेदर्द चित्रकार है…
लगता है किसी बौड़म भाषा का नतीजा है
या उस नतीजे से गिरफ्तार है..
निशांत …………………
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