Menu
blogid : 11502 postid : 12

समय का सफ़र “एक लम्बी सोच “

nishantjha
nishantjha
  • 15 Posts
  • 13 Comments

जल में उतरते
उस दिनकर को
देख कर सोचा,,
कि,
पश्चाताप झूठ के आखिर हो
या संभोग के अंत का
एक नए आश्वासन के साथ,,
दूर स्थानान्तरित हो जाता है..
और इसका लौटना,,
एक दिलासे और गलती कि न्यूनता के वादे के साथ होता है..
चाय कि चुस्कियों के साथ नक्शा बदलना
हालांकि आसान काम है..
मगर मैं ने देखा है
कि सब नाकाम है
परिस्तिथियों कि आदत हो
या
पीढियों का बलगम
कभी किसी भूखे कि अंतडियों मैं झांकना
अपने कद को उस कद से नापना
सच कहता हूँ
जब,
कंधे से बंधा हाथ तुमसे कुछ मांगता है….
तुम्हारा मन सशरीर वहां से भागता है…
और तुम्हारा अभिमान,,
हाढ़ के २ फुटिए ढेर को टांगी महिला,
का एक बटन से दो स्तनों को ढांकने के प्रयास की तरह बेकार हो जायेगा..
यह मौसम
अब के
पूरी सदी खायेगा..
छंदों से गरीबी को
बार बार मिटाया जायेगा….
बहुत कोशिश है
कि
कविता का निर्माण
और
गरीबी का प्रयाण….
एक ही पन्ने पर सिमट जाये
क्यूँ कि अभी भी बेपूँच पालतू बाकी हैं..
तुम देखों
तुम ठहरो
एक ऐसा आसमान आने वाला है
जो एक निवाले
मैं ज़मीन खाने वाला है…
हाँ यह वक़्त कि निंदा है…
मगर भाषा और भूख दोनों जिंदा हैं..
यह वक़्त शीशे मैं दांत गिनने का नहीं है,,,
लौटो
वर्तमान मैं
भाषा को सहेजो
नहीं तो मैं कहे देता हूँ..
किसी धार्मिक भांडे कि तरह फोड़े जाओगे
नहीं तो समाज के अर्थ कि तरह तोड़े जाओगे.
निशांत ………………………….

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply