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आजादी और आबादी

nishantjha
nishantjha
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आज गाँधी दिवस है,
कविता तक लौटते लौटते
हजारों शब्दों को नोंच डाला
अब,
मुझे इस बात से मंजूरी है
कि
कविता, भाषा ढोने की मजदूरी है
इस बार
लाश के सड़ने से
कविता के बनने तक के जूतों की दूरी है
और यह जिम्मेदारी
राष्ट्रगान ने पूरी की है,,
गाँधी दिवस पर,
एक पुराने मौसम की याद मैं
आज़ादी को याद किया गया
गाँधी राष्ट्रपिता हैं
और राष्ट्रपिता की तस्वीर आज
छोटे से छोटे बाज़ार मैं बिक रही है
यह पुराने मौसम का विज्ञापन हो
या गुलामी पर ज्ञापन
कुल मिलाकर
तुम ग्रसित हो
आह! इतनी तेज़ रौशनी
कुछ भी दिखाई नहीं देता
हर शक्ल बहुत नज़दीक आ गयी है
एक पन्ने पर बर्बादी है
एक पन्ने पर आबादी है
एक पन्ने पर लाचारी है
एक पन्ने पर बीमारी है
किताब बंद करने के बाद
शायद
इन पन्नों को फाड़कर
पानी मैं घोलकर पी जाना चाहिए..
अचानक पैरों मैं चप्पल डाली
और साहिल मैं जाकर
मैं ने चिल्लाया
“आज़ादी”
एक गाढा झाग
मेरे पांव को लगा,
एक अल्प सन्नाटे के बाद
समंदर ने दम तोड़ दिया
आज़ादी सुनकर शायद कांप गया था
या इस परिभाषा को भांप गया था..
आज़ादी का ये रोना गाना तो ,
हर रात
बिस्तर पर किया ही जाता है
आज गाँधी दिवस है
आज भी यहाँ आज़ादी और आबादी की वर्षा है
नाली किनारे बैठे लोगों के दांतों में ,
आज फिर गाँधी का चर्चा है..
निशांत …………………………..

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